“चूड़ाकरण या मुण्डन संस्कार”
हिन्दू धर्म में स्थूल दृष्टि से प्रसव के साथ शिशु के सिर पर आए वालों को हटाकर सिर की सफाई करना आवश्यक मन जाता है। सूक्ष्म दृष्टि से शिशु के व्यवस्थित बौद्धिक विकास, कुविचारों के उच्छेदन, श्रेष्ठ विचारों के विकास के लिए जागरूकता जरूरी है। स्थूल-सूक्ष्म उद्देश्यों को एक साथ सँजोकर इस संस्कार का स्वरूप निर्धारित किया गया है। इसी के साथ शिखा स्थापना का संकल्प भी जुड़ा रहता है। हम श्रेष्ठ ऋषि संस्कृति के अनुयायी हैं, हमें श्रेष्ठत्तम आदर्शो के लिए ही निष्ठावान तथा प्रयासरत रहना है, इस संकल्प को जाग्रत रखने के लिए प्रतीक रूप में शरीर के सर्वोच्च भाग सिर पर संस्कृति की ध्वजा के रूप में शिखा की स्थापना की जाती है।
संस्कार प्रयोजन:-
इस संस्कार में शिशु के सिर के बाल पहली बार उतारे जाते हैं। लौकिक रीति यह प्रचलित है कि मुण्डन, बालक की आयु एक वर्ष की होने तक करा लें अथवा दो वर्ष पूरा होने पर तीसरे वर्ष में कराएँ। यह समारोह इसलिए महत्त्वपूर्ण है कि मस्तिष्कीय विकास एवं सुरक्षा पर इस सयम विशेष विचार किया जाता है और वह कार्यक्रम शिशु पोषण में सम्मिलित किया जाता है, जिससे उसका मानसिक विकास व्यवस्थित रूप से आरम्भ हो जाए, शास्त्रों के मुताबिक चौरासी लाख योनियों में भटकने के पश्चात आत्मा को मानव शरीर मिलता है(सभी योनियों से संचित संस्कारों का प्रभाव मानव पर रहता है। मानव शरीर में रहते हुए व्यक्ति में मानवीय गुणों का विकास हो उनके पूर्व जन्मों के संचित संस्कार से मुक्ति प्राप्त हो इसके लिए मुण्डन संस्कार किया जाताइस समय बुद्धि का विकास तेजी से होना शुरू होता है अत: बच्चे में अच्छी बुद्धि और ज्ञान के उद्दे्श्य से यह संस्कार किया जाता है। इस संस्कार के लिए मुहुर्त का आंकलन किस प्रकार किया जाता है।
मुण्डन का प्रतीक कृत्य किसी देव स्थल तीथर् आदि पर इसलिए कराया जाता है कि इस सदुद्देश्य में वहाँ के दिव्य वातावरण का लाभ मिल सके। यज्ञादि धामिर्क कमर्काण्डों द्वारा इस निमित्त किये जाने वाले मानवीय पुरुषाथर् के साथ-साथ् सूक्ष्म सत्ता का सहयोग उभारा और प्रयुक्त किया जाता है।
चूड़ाकर्म का महत्व :-
इस संस्कार का संबंध प्रमुख रुप से शिशु की स्वास्थ्यरक्षा के साथ माना गया है। इससे बालक की आयुवृद्धि होती है, वह यशस्वी एवं मंगल कार्यों में प्रवृत्त होता है। पुरातन आयुर्विज्ञान विशेषज्ञों ने भी इसके स्वास्थ्य संबंधी महत्व को स्वीकार किया है। चरक तथा सुश्रुत दोनों का ही कहना है कि केश, श्वश्रु तथा नखों के केर्तन एवं प्रसाधन से आयुष्य, शारीरिक पुष्टता, बल, शुचिता एवं सौंदर्य की अभिवृद्धि होती है। अर्थात् केशवपन से भी शरीर पुष्ट, नीरोग एवं सौंदर्य सम्पन्न होता है।
व्यक्त है कि गर्भजन्य केशों के कारण शिशु के सिर में खाज, फोड़े, फुंसी आदि चर्मरोगों के होने तथा लंबे बालों के कारण सिर में जूं, लीख आदि कृमि- कीटों के उत्पन्न होने की संभावना भी रहती है। साथ ही गर्भजन्य बालों की विषमता के कारण शिशु के बालों का विकास भी समरुप में नहीं हो पाता है। अतः शैशवास्था में एक बार क्षुर ( उस्तरे ) से उनका वपन आवश्यकता होता है। केशवपन की इस आवश्यकता का अनुपालन, हिंदुओं के अतिरिक्त अन्य धर्मावलम्बियों में भी देखा जाता है।
विशेष व्यवस्था:-
इस संस्कार के लिए सामान्य व्यवस्था के साथ नीचे लिखे अनुसार विशेष तैयारी पर ध्यान दिया जाना चाहिए।
1. मस्तक लेपन के लिए यथासम्भव गाय का दूध एवं दही पचास-पचास ग्राम भी बहुत है।
2. कलावे के लिए लगभग छः छः इञ्च के तीन टुकड़ों के बीच में छोटे-छोटे कुश के टुकड़ों को बाँधकर रखना चाहिए।
3. प्रज्ञा संस्थानों शाखाओं को इस उद्देश्य के लिए कैंची, छुरा अलग से रखना चाहिए। उन्हीं का पूजन कराकर नाई से केश उतरवाना चाहिए।
4. बालक के लिए मुण्डन के बाद नवीन वस्त्रों की व्यवस्था रखनी चाहिए।
5. बाल एकत्र करने के लिए गुँथे आटे या गोबर की व्यवस्था रखनी चाहिए।
विशेष कमर्काण्ड बालक एवं उसके अभिभावकों का मंगलाचरण से स्वागत करते हुए क्रमबद्ध रूप से निधार्रित प्राथमिक उपचार तथा रक्षाविधान तक का क्रम पूरा कर लेना चाहिए। उसके बाद क्रमशः विशेष कमर्काण्ड कराये जाएँ।